गृह की कार्य-व्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारक कोई भी कार्य व्यवस्था बनायी जाय, उसकी सफलता में सहायता देने वाले कुछ कारक होते हैं। घर की कार्य को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं--- -व्यवस्था
गृह की कार्य-व्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारक कोई भी कार्य व्यवस्था बनायी जाय, उसकी सफलता में सहायता देने वाले कुछ कारक होते हैं। घर की कार्य को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं--- -व्यवस्था
गृह की कार्य-व्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारक कोई भी कार्य व्यवस्था बनायी जाय, उसकी सफलता में सहायता देने वाले कुछ कारक होते हैं। घर की कार्य को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं--- -व्यवस्था
(1) गृह की स्थिति गृह का निर्माण कैसे स्थान पर है, वह किस प्रकार का है, यह दोनों बातें घर की व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। घर से बाजार, स्कूल-कॉलेज, डाकखाना, बैंक, अस्पताल तथा गृहस्वामी का कार्यस्थल कितनी दूर है, इन सब बातों का प्रभाव भी गृह की व्यवस्था पर पड़ता है। घर में परिवार के सदस्यों के लिए जितना स्थान है, उसके अनुरूप ही कमरों का प्रबन्ध करना पड़ता है। शौच गृह, स्नान गृह आदि का जैसा प्रबन्ध होता है, वैसी ही उनकी सफाई आदि की व्यवस्था करनी पड़ती है।
भार (2) परिवार का संगठन एकाकी परिवार है अथवा संयुक्त, घर में किस आयु के सदस्य हैं, इन बातों को ध्यान में रखकर गृह व्यवस्था करनी पड़ती है। छोटे परिवार में जहाँ एक ओर कार्य कुछ कम रहता है, वहीं दूसरी ओर व्यवस्था का समस्त भार मुख्य रूप से अकेली गृहिणी पर ही पड़ता है। संयुक्त परिवार में कार्य अधिक होता है और साधन भी अधिक जुटाने पड़ने हैं, किन्तु साथ ही गृहिणी को व्यवस्था के कार्यों में परिवार के अन्य सदस्यों से सहायता मिलती है और कुछ कार्यों के से उसे पूर्ण मुक्ति मिल जाती है। अतः परिवार का रूप और सदस्यों की संख्या भी गृह-व्यवस्था को प्रभावित करते हैं।
(3) परिवार का सहयोग अपने समस्त कार्य गृहिणी अकेली नहीं कर सकती, अतः उसे परिवार के अन्य सदस्यों का सहयोग मिलना आवश्यक है। अपनी आयु, क्षमता और योग्यता के अनुसार प्रत्येक सदस्य को गृह कार्यों में सहायता करनी चाहिए। घर में वृद्धा सास साग-सब्जी काटने और छोटे बच्चों को देखने में सहायता कर सकती है। बड़े लड़के बाजार और बैंक के काम में, खाने की मेज लगाने आदि में सहायता कर सकते हैं और बड़ी लड़की हो तो भोजन पकाने, सीने पिरोने में हाथ बँटा सकती है। गृहस्वामी अपना काम स्वयं करके भी अपरोक्ष रूप से गृहिणी की सहायता कर सकते हैं। साथ ही बाजार, बैंक आदि के कार्य का भार उठा सकते हैं। विद्युत उपकरणों के ठीक करने या उनके रख-रखाव में भी वह सहायता कर सकते हैं। इस प्रकार के सहयोग से सब सदस्यों में आत्मनिर्भरता, परिश्रम की आदत और उसका महत्त्व समझने की क्षमता तथा जीवन को वास्तविक स्तर पर समझने की शक्ति आती है। एक-दूसरे के सहयोग से कार्य करने से उनमें परस्पर प्रेम, सहानुभूति और समन्वय की भावना अधिक मात्रा में उत्पन्न होती है, जो सामाजिक जीवन में उनके लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है।
(4) आय-व्यय का सन्तुलन- घर की पूरी व्यवस्था बहुत अंश तक प्राप्त साधनों पर निर्भर करती है। इन साधनों को जुटाने के लिए धन की आवश्यकता होती है। परिवार की कुल आय उसकी आवश्यकताओं के अनुपात में हो तब ही व्यवस्था ठीक से हो पाती है। यदि आय कम और व्यय अधिक हो तो गृहिणी के सामने बड़ा भारी संकट उपस्थित हो सकता है। अतः जैसे भी हो अपनी आय और व्यय के बीच गृहिणी को सन्तुलन बनाये रखना पड़ता है। भविष्य में बीमारी या अन्य आकस्मिक व्ययों के लिए उसे कुछ बचत भी करनी होती है। इसकी विस्तृत विवेचना आगे की गयी है।
(5) रहन-सहन का स्तर- गृहिणी की कुशल गृह-व्यवस्था और परिवार की परम्पराएँ, सदस्यों की आदतें, उनकी कार्य क्षमता और मान-सम्मान की भावना परिवार का स्तर बनाते हैं। प्रत्येक गृहिणी की स्वाभाविक इच्छा होती है कि उसके परिवार का स्तर बराबर ऊँचा होता जाय। इसके लिए उसे उक्त सब बातों की ओर ध्यान देना पड़ता है।
(6) उपयुक्त यन्त्र, उपकरण और कार्य स्थल- कार्य करने का स्थान और यन्त्र उपयुक्त न हों तो भी कार्य कुशलतापूर्वक नहीं किया जा सकता। यन्त्रों से हमारा तात्पर्य केवल आधुनिकतम विद्युत उपकरणों से ही है। कौन-कौन आधुनिक यन्त्र गृहिणी
ले यह परिवार की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है। इन्हें जो गृहिणी प्राप्त कर पाती हैं, उससे श्रम और समय की बचत होती है, किन्तु जिन्हें ये वस्तुयें उपलब्ध नहीं हो पातीं, उन्हें भी अपने साधनों को ठीक अवस्था में रखना चाहिए। आज गैस का चूल्हा इतना अधिक प्रचलित है कि सभी सामान्य परिवारों में इसी का प्रचलन होता जा रहा है। इसमें धुएँ की समस्या तो समाप्त हो जाती है, किन्तु कुछ अन्य सावधानियाँ बरतनी पड़ती हैं। यदि लकड़ी का चूल्हा ही जलाना हो तो रसोई घर में धुआँ निकलने की उचित व्यवस्था होनी चाहिए तथा लकड़ी सूखी होनी चाहिए, जिससे ठीक से जले अन्यथा धुएँ से परेशानी के साथ-साथ काम भी ठीक से नहीं हो सकेगा। बहुत-सी चीजें वर्तमान 'मिक्सी' की अपेक्षा सिल पर जल्दी और अच्छी पिसती हैं, किन्तु सिल और बट्टा ठीक से कुटे हों और आवश्यकता के अनुरूप छोटे-बड़े हों यह आवश्यक है। हल्दी, खटाई आदि लोहे के खरल (इमामदस्ते) में ही कूटे जा सकते हैं, मिक्सी में नहीं। फिर भी नये और पुराने सभी उपकरणों का अपना-अपना उपयोग और महत्त्व है। कार्य-स्थल का उपयुक्त होना, प्रकाश की उचित व्यवस्था आदि भी कार्य-क्षमता को प्रभावित करते हैं। पाक कक्ष के सन्दर्भ में इनका विस्तृत विवरण दिया गया है।
(7) गृह विज्ञान का ज्ञान और कार्यकुशलता- इन सब साधनों से अधिक महत्त्व की बात यह है कि गृहिणी को गृह-व्यवस्था और गृह-कार्यों का अच्छा ज्ञान हो और उसकी कार्य करने की क्षमता और कुशलता अच्छी हो। कुशल और योग्य गृहिणी बहुत से साधनों और उपकरणों के अभाव में भी अपना कार्य दूसरे प्रकार से चला लेती हैं। इसके विपरीत एक फूहड़ और अयोग्य गृहिणी सब कुछ साधन होते हुए भी अपने घर की अच्छी व्यवस्था नहीं कर पाती।
इस दृष्टि से गृह विज्ञान की शिक्षा का गृहिणी के जीवन में विशेष महत्त्व है। इससे उसे सभी आवश्यक गृह कलाओं का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होता है, उनका कुछ अभ्यास भी हो जाता है तथा गृहस्थ जीवन सम्बन्धी आवश्यक वैज्ञानिक ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है, जिससे उसकी कार्यक्षमता और कार्यकुशलता बढ़ती है।
(8) अभिरुचि- स्त्री की अपनी अभिरुचि का भी उसकी गृह-व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। उसकी रुचि कलात्मक है या नहीं, वह गृहस्थी के कार्यों में रुचि लेती है या बाहर के कार्यों में और जीविकोपार्जन में, यह सब बातें भी उनकी गृह-व्यवस्था को प्रभावित करती हैं।
परिवार के अन्य सदस्यों की अभिरुचि का प्रभाव भी गृहस्थी की व्यवस्था पर पड़ता है। गृहिणी को सबकी आवश्यकताओं और रुचियों का ध्यान रखकर उसके अनुसार प्रबन्ध करना होता है। एकाकी परिवार में भी पति और पत्नी की भी पसन्द और रुचि कई बातों में भिन्न हो सकती है। ऐसी परिस्थिति में दोनों के बीच सामंजस्य बैठाकर उसे गृह-व्यवस्था करनी होती है, तभी उसे सफलता मिलती है।
सुव्यवस्थित घर में सभी को सुख, सुविधा, शान्ति और आनन्द प्राप्त होता है। ऐसे वातावरण में परिवार के लोगों के पारस्परिक सम्बन्ध भी मधुर बने रहते हैं और फलस्वरूप परिवार का जीवन स्तर और प्रतिष्ठा बढ़ने में सहायता मिलती है। बच्चों को भी उत्तम आदर्श प्राप्त होते हैं जो उनके जीवन को ऊँचा उठाने में सहायक होते हैं।
अव्यवस्थित घर में समय-समय पर सबको ही परेशानी होती है, जिससे उनके व्यवहार में झुंझलाहट और चिड़चिड़ापन आ जाता है। ऐसे परिवार में शान्ति, प्रसन्नता और आनन्द का वातावरण नहीं रह पाता। परिणामस्वरूप बच्चों की शिक्षा अच्छी नहीं हो पाती और उनके चरित्र का निर्माण भी उचित दिशा में नहीं होता।
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