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Showing posts from September, 2021

आर्थिक जीवन पर प्रभाव

निरन्तर आर्थिक लाभ प्राप्त हो रहा था, इससे उन जा रहा था, उनके भौतिक सुख-साधन बढ़ने लगे थे और वे धन के बल पर विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे थे। आर्थिक जीवन पर प्रभाव . पूँजीवाद का विकास औद्योगिक क्रान्ति ने आर्थिक जनजीवन का स्वरूप ही बदल दिया, जिससे राज्य की आय भी बढ़ी। उद्योगो के स्वामियों के पास धन की निरन्तर अभिवृद्धि हो रही थी। आर्थिक जीवन में छोटे व्यवसायियों का महत्त्व घट रहा था और उनके पास धन का • समाजवाद का विकास अभाव रहने लगा था। किसी भी देश के आर्थिक स्तर का मापदण्ड उसके विशाल उद्योगों को ही स्वीकार किया जाने लगा। फलस्वरूप पूँजीवाद का विकास होता गया। आर्थिक जीवन पर प्रभाव पूंजीवाद का विकास कृषि एवं यातायात के संसाधनों में क्रान्ति राष्ट्रीय आय में वृद्धि जीवन स्तर में वृद्धि आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता कृषि एवं यातायात के संसाधनों में क्रान्ति औद्योगिक क्रान्ति का सबसे उपयोगी और व्यापारिक प्रभाव यह रहा कि इससे कृषि-जगत् और यातायात के संसाधनों में क्रान्ति आ गई। कृषि यन्त्रों की सहायता से खाद्यान्नों के उत्पादन में कई गुना वृद्धि हुई और कृषकों की दशा में विशेष सुधार हुआ...

इंग्लैण्ड की क्रान्ति का घटना

इंग्लैण्ड की क्रान्ति का घटना इंग्लैण्ड के राजा 'जेम्स द्वितीय' की कैथोलिक समर्थक नीति ने देश में क्रान्ति का वातावरण तैयार कर दिया था। देश के अधिकांश नेता प्रोटेस्टेण्ट के समर्थक थे। 15 नवम्बर, 1688 को देश के नेताओं ने हॉलैण्ड के प्रोटेस्टेण्ट राजा विलियम तृतीय (जेम्स द्वितीय का दामाद) को इंग्लैण्ड का ताज ग्रहण करने के लिए - आमन्त्रित किया। विलियम अपनी सेना के साथ 15 नवम्बर, 1688 को इंग्लैण्ड पहुँच गया। जनता की उत्तेजना देखकर राजा 'जेम्स द्वितीय' अपने परिवार सहित फ्रांस भाग गया। इसके भाग जाने पर संसद ने इंग्लैण्ड में हैनोवर वंश के प्रोटेस्टेण्ट राजा विलियम तृतीय (विलियम ऑफ ऑरेन्ज) और उसकी पत्नी मैरी (जेम्स द्वितीय की पुत्री) को संयुक्त रूप से राजगद्दी पर आसीन कर दिया। इस तरह संसद की विजय हुई और इंग्लैण्ड की रक्तहीन क्रान्ति सफल हुई। इंग्लैण्ड की क्रान्ति के परिणाम इंग्लैण्ड की इस क्रान्ति का विश्व इतिहास पर बड़ा दूरगामी व व्यापक परिणाम हुआ, जो इस प्रकार है • राजा के दैवीय अधिकारों का अन्त इस क्रान्ति के पूर्व सारी शक्तियों का केन्द्र बिन्दु सम्राट होता था तथा अधिकतर सम...

अमेरिकी क्रान्ति की उपलब्धियाँ

अमेरिकी क्रान्ति की उपलब्धियाँ इस क्रान्ति की निम्नलिखित उपलब्धियाँ थीं लिखित संविधान अमेरिका में स्वतन्त्रता संग्राम के पश्चात् प्रथम बार लिखित संविधान लागू किया गया। विश्व के अन्य देशों के द्वारा लिखित संविधान का अनुकरण किया जाने लगा। • गणराज्य की स्थापना इस क्रान्ति ने गणतन्त्र शासन व्यवस्था की स्थापना के मार्ग खोल दिए। इस क्रान्ति ने विश्व को "जनता का शासन, जनता द्वारा जनता के लिए" का सन्देश दिया। इससे प्रभावित होकर विश्व के अधिकांश देशों ने गणतन्त्र शासन व्यवस्था की स्थापना की। अमेरिकी क्रान्ति की उपलब्धियाँ लिखित संविधान • गणराज्य की स्थापना अन्य देशों के लिए प्रेरणास्रोत गृह युद्ध तथा दास प्रथा का उन्मूलन संयुक्त राज्य का उदय • समानता एवं स्वतन्त्रता का महत्त्व • अंग्रेजों की नीति में उदारता • संघीय शासन व्यवस्था अन्य देशों के लिए प्रेरणास्रोत अमेरिकी क्रान्ति की सफलता ने विश्व के अनेक देशों को उत्साहित किया; जैसे-फ्रांस की क्रान्ति। • गृह युद्ध तथा दास प्रथा का उन्मूलन अमेरिका में इस क्रान्ति के पश्चात् गृह युद्ध समाप्त हो गया तथा अब्राहम लिंकन के द्वारा दास प्रथा का ...

. फ्रांस की क्रान्ति में 'टेनिस कोर्ट की शपथ ' का क्या महत्त्व है? इसके कारण और परिणाम पर प्रकाश डालिए ।

. फ्रांस की क्रान्ति में 'टेनिस कोर्ट की शपथ ' का क्या महत्त्व है? इसके कारण और परिणाम पर प्रकाश डालिए । (2016) उत्तर 'टेनिस कोर्ट की शपथ' फ्रांस की ऐतिहासिक क्रान्ति से पहले होने वाली प्रमुख घटना थी। इस घटना में मूल रूप से फ्रांसीसी समाज के तृतीय वर्ग ने भाग लिया, जो फ्रांस के कर दाता थे। टेनिस कोर्ट की शपथ ने फ्रांस की असन्तुष्ट जनता एवं तृतीय वर्ग को एकजुट करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसमें फ्रांस के लिए नवीन संविधान निर्माण की बात की गई थी। टेनिस कोर्ट की शपथ के कारण फ्रांस में कर प्रस्तावों को लेकर बुलाई गई स्टेट्स जनरल की बैठक में मतदान को लेकर तीसरे वर्ग के द्वारा रखे गए प्रस्ताव को सम्राट द्वारा अस्वीकार करने के पश्चात् तीसरे स्टेट के प्रतिनिधि विरोध जताते हुए सभा से बाहर चले गए। इसी कारण ये प्रतिनिधि 20 जून, 1789 को इन्डोर टेनिस कोर्ट में जमा हुए। टेनिस कोर्ट की शपथ के परिणाम टेनिस कोर्ट की शपथ फ्रांस में विद्रोह की प्रथम चिंगारी थी। इस घटना के पश्चात् सम्राट को एक सप्ताह बाद ही नेशनल असेम्बली (तृतीय वर्ग द्वारा निर्मित सभा) को मान्यता देनी पड़ी। इसके पश्च...

रूस की क्रान्ति के परिणाम

सामाजिक असमानता की समाप्ति क्रान्ति के परिणामस्वरूप एक नए प्रकार की सामाजिक आर्थिक व्यवस्था का विकास हुआ। निजी स्वामित्व एवं व्यक्तिगत लाभ को समाप्त कर दिया गया। इस समाज में व्याप्त असमानता को समाप्त करके प्रत्येक व्यक्ति को काम देना समाज और राज्य का कर्त्तव्य बन गया। रूस की क्रान्ति के परिणाम . निरंकुश जारशाही शासन का अन्त • प्रथम समाजवादी राज्य का उद्भव •सामाजिक असमानता की समाप्ति . आर्थिक नियोजन शिक्षा एवं संस्कृति के क्षेत्र में विकास औद्योगिक विकास शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरना आर्थिक नियोजन क्रान्ति के परिणामस्वरूप नई सरकार का प्रमुख कार्य तकनीकी दृष्टिकोण से उच्च अर्थव्यवस्था का निर्माण करना था। इस कार्य के लिए आर्थिक नियोजन के सिद्धान्त को अपनाया गया। शिक्षा एवं संस्कृति के क्षेत्र में विकास सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन के साथ-साथ शिक्षा एवं संस्कृति के क्षेत्र में भी विकास किया गया। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से आर्थिक विकास, अन्धविश्वासों के निवारण एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास में सहायता मिली, जिसके कारण आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को गति मिली। औद्योगिक विकास इस ...

इटली का एकीकरण

इटली का एकीकरण इटली का राष्ट्रीय एकीकरण आधुनिक यूरोप के इतिहास में महत्त्वपूर्ण घटना है। 19वीं सदी के मध्य में इटली सात राज्यों में बँटा था, जिनमें से केवल एक इतालवी राजघराने के अधीन था। इटली के एकीकरण में देशभक्तों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इन देशभक्तों में गैरीबाल्डी, मेजिनी और काबूर का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इटली के एकीकरण में मेजिनी का योगदान मेजिनी ने इटली को एकीकृत कर गणराज्य बनाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। उसने 1860 के दशक में इटली के एकीकरण हेतु एक सुविचारित कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जिसके प्रचार-प्रसार के लिए उसने एक गुप्त संगठन 'यंग इटली' बनाया। 1841 ई. से 1848 ई. में इस संगठन की सहायता से मेजिनी ने सिसली तथा नेपल्स के विद्रोहों को सफल बनाने का प्रयास किया, किन्तु सफलता नहीं मिली। इटली के एकीकरण में काबूर का योगदान काबूर एक उच्च शिक्षित फ्रेंच भाषी था, किन्तु वह कट्टर देशभक्त था, उसके कार्यों के विषय में ग्राण्ट एवं टेम्परले के द्वारा यह विचार दिया गया है कि "उसके प्रथम कार्यों में से एक कार्य मिशनरियों का विनाश भी था, परन्तु इटली के एकीकरण ने उसका ध्यान ...

द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रमुख परिणाम

द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रमुख परिणाम द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रमुख परिणाम निम्नलिखित थे भयंकर विनाश एवं नरसंहार इस द्वितीय विश्वयुद्ध में विश्व के लगभग 70 देशों की थल, वायु एवं जल सेनाएँ शामिल थीं। इस युद्ध में लगभग 5 करोड़ से भी अधिक लोग मारे गए। करोड़ों लोग घायल व बेघर हो गए थे। इस युद्ध में सर्वाधिक हानि जर्मनी एवं रूस को उठानी पड़ी। फ्रांस, बेल्जियम, हॉलैण्ड आदि राष्ट्रों में असंख्य लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर गए थे। आर्थिक परिणाम यूरोप के अनेक राष्ट्रों के द्वारा अपने साधनों को युद्ध में लगा दिया गया था, जिससे उनकी अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई। इस युद्ध में संलग्न सभी राष्ट्रों द्वारा लगभग 13 अरब, 90 करोड़ 84 लाख डॉलर व्यय किए गए। युद्ध के उपरान्त अनेक देशों की कीमतों में तीव्रता से वृद्धि हुई, जिसके कारण मुनाफाखोरी एवं कालाबाजारी में वृद्धि हो गई। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रमुख परिणाम भयंकर विनाश एवं नरसंहार • आर्थिक परिणाम जर्मनी का विभाजन शीतयुद्ध का जन्म संयुक्त राष्ट्र संघ का निर्माण अस्त्र-शस्त्र निर्माण की होड़ जर्मनी का विभाजन द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के कारण मित्र रा...

कर्नाटक के तृतीय युद्ध का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

. कर्नाटक के तृतीय युद्ध का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। उत्तर 1756 ई. में यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध प्रारम्भ हो गया, जिससे और फ्रांसीसी एक-दूसरे के विरोध में आ गए तथा 1757 ई. में एक-दूसरे के स्थानों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। फ्रांसीसियों ने कर्नाटक के अधिकांश पुन: अंग्रेज भागों पर अधिकार कर लिया था। कर्नाटक के तृतीय युद्ध का वास्तविक आरम्भ 1758 ई. में तब हुआ, जब फ्रांसीसी सरकार ने काउण्ट डी लाली को भारत के सम्पूर्ण फ्रांसीसी प्रदेशों के सैनिक एवं असैनिक अधिकारों से युक्त अधिकारी नियुक्त किया। लाली ने 1758 ई. में फोर्ट सेण्ट डेविड जीत लिया। यह युद्ध 1763 ई. तक चला। 1763 ई. में पेरिस की सन्धि के साथ ही इस युद्ध का अन्त हो गया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप पाण्डिचेरी, माही और चन्द्रनगर के बन्दरगाह फ्रांस को के वापस कर दिए गए। फ्रांसीसी कम्पनी अब केवल व्यापार करने वाली कम्पनी रह गई। हैदराबाद के निजाम और कर्नाटक का नवाब अंग्रेजों के प्रभाव में आ गए तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। प्रश्न 2. पेरिस की सन्धि कब और किनके मध्य की गई? इस सन्धि का फ्रांस पर क्या प्रभाव...

• फ्रांसीसी कम्पनी पर सरकारी नियन्त्रण ब्रिटिश कम्पनी

• फ्रांसीसी कम्पनी पर सरकारी नियन्त्रण ब्रिटिश कम्पनी एक व्यक्तिगत कम्पनी थी और इसकी आर्थिक स्थिति बेहद सुदृढ़ थी, जबकि फ्रांसीसी कम्पनी एक सरकारी कम्पनी थी। यही कारण था कि फ्रांसीसी कम्पनी को छोटी-से-छोटी सहायता के लिए सरकार पर निर्भर रहना पड़ता था, जिसके परिणामस्वरूप फ्रांसीसी कम्पनी को समय पर सहायता नहीं मिल पाती थी। . फ्रांसीसियों की पराजय के कारण सामुद्रिक शक्ति का कमजोर होना • व्यापार की दयनीय स्थिति • फ्रांसीसी कम्पनी पर सरकारी नियन्त्रण योग्य सेनापतियों का अभाव फ्रांसीसियों में एकता का डूप्ले की फ्रांस वापसी अभाव अंग्रेजों द्वारा बंगाल की विजय काउण्ट डी लाली का असहयोगात्मक स्वभाव डूप्ले द्वारा व्यापार के स्थान पर साम्राज्य स्थापना का निर्णय लेना योग्य सेनापतियों का अभाव भारतीय शासकों का अपेक्षित अंग्रेजों के पास रॉबर्ट क्लाइव, सहयोग न मिलना वॉरेन हेस्टिंग्स, एल्फिस्टन, मुनरो, फ्रांसीसियों की तुलना में अंग्रेज़ों वेलेजली जैसे उत्तम तथा कुशल श्रेणी के सेनापति तथा प्रशासनिक नेता थे, जबकि फ्रांसीसियों के को अधिक समृद्ध क्षेत्रों की प्राप्ति एवं कुशल श्रेणी के सेनापतियों एवं प्रशासन...

1857 ई. की क्रान्ति के आर्थिक कारण निम्न हैं

1857 ई. की क्रान्ति के आर्थिक कारण निम्न हैं . किसानों की दयनीय स्थिति ब्रिटिश सरकार की अत्यधिक लगान नीति के कारण उत्तरी भारत के अधिकतर क्षेत्रों के जमींदारों में आक्रोश व्याप्त था, क्योंकि लगान की राशि बहुत ज्यादा थी, इसमें उस समय वृद्धि की . भारतीय धन का ब्रिटेन चले जाना गई थी, जब किसान विभिन्न प्राकृतिक विपदाओं से घिरे थे। आर्थिक कारण किसानों की दयनीय स्थिति भारतीय व्यापार की हानि हस्तशिल्पियों की दुर्दशा भारतीय व्यापार की हानि ब्रिटिश शासन की शोषणकारी नीति के परिणामस्वरूप भारतीय व्यापार समाप्त हो गया। ब्रिटिश यहाँ से कच्चे माल सस्ते मूल्य पर खरीद कर ले जाते और उससे तैयार माल को भारत में बेचते थे, जिसके कारण भारतीय व्यापारियों में असन्तोष उत्पन्न होने लगा था, जिसका परिणाम 1857 ई. की क्रान्ति के रूप में देखने को मिला। हस्त-शिल्पियों की दुर्दशा उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः हस्त-शिल्पियों पर निर्भर थी। कम्पनी के व्यापार के बाद इन हस्त शिल्पियों की स्थिति अत्यन्त ही दयनीय हो गई। भारतीय धन का ब्रिटेन चले जाना कम्पनी के अधिकारी और कर्मचारी कुछ थोड़े समय के लिए भारत आया करते थे। अतः ...

सैनिक कारण

सैनिक कारण 1857 ई. की क्रान्ति के सैनिक कारण निम्नलिखित हैं सैनिकों में भेदभाव अंग्रेजी सेना में कार्यरत् भारतीय और ब्रिटिश सैनिकों के मध्य भेदभाव का व्यवहार किया जाता था। भारतीयों को पदोन्नति न के बराबर दी जाती थी तथा इन्हें उच्च पदों पर भी नियुक्त नहीं किया जाता था। समुद्र पार जाने की अनिवार्यता अंग्रेजों द्वारा 1856 ई. में एक कानून बनाया गया। इस कानून में यह प्रावधान किया गया कि आवश्यकता पड़ने पर भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों की ओर से लड़ने के लिए समुद्र पार भी भेजा जा सकता था। इसे सैनिकों के द्वारा मना नहीं किया जा सकता था, जबकि हिन्दू सैनिक धार्मिक कारणों से समुद्र पार नहीं जा सकते थे। सैनिक कारण सैनिकों में भेदभाव समुद्र पार जाने की अनिवार्यता रियासती सेना की समाप्ति • अफगान युद्ध का प्रभाव क्रीमिया युद्ध चर्बी लगे कारतूसों का प्रयोग रियासती सेना की समाप्ति अंग्रेजों द्वारा 1856 ई. में अवध को अंग्रेजी राज्य में मिला दिया गया और अवध की लगभग 60 हजार रियासती सेना को भंग कर दिया गया, इससे 60 हजार सैनिक बेरोजगार हो गए। इसके परिणामस्वरूप बेरोजगार सैनिकों में क्रान्ति की लहर उत्पन्न हो गई...

नवजागरण

नवजागरण भारत में 19वीं शताब्दी में एक ऐसी नवीन चेतना का उदय हुआ, जिसने देश के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया, इसी नवचेतना को हम ' नवजागरण' के नाम से पुकारते हैं। अतः 19वीं शताब्दी को भारतीय ● 'नवजागरण का काल कहा जाता है। में भारत में नवजागरण का उदय 19वीं सदी में भारतीय समाज कुरीतियों में जकड़ा हुआ था। देश में महिलाओं की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो चुकी थी। जनसाधारण वर्ग ब्राह्मणों और पुरोहितों के आडम्बरों से त्रस्त था। ईसाई मिशनरियों ने हिन्दू धर्म की खामियों को उजागर कर लोगों को अपने धर्म में शामिल करना शुरू कर दिया था। इसके फलस्वरूप भारत में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ। इन आन्दोलनों से भारतीयों के मन और मस्तिष्क में नवचेतना और नवस्फूर्ति का संचार हुआ, जिससे भारतीयों में सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक मूल्यों का नवीन उदय हुआ। इस नवचेतना को ही 'नवजागरण' या 'पुनर्जागरण' के नाम से जाना जाता है। नवजागरण को सुधार आन्दोलन भी कहते हैं। भारत में नवजागरण के कारण भारत में नवजागरण के निम्नलिखित प्रमुख कारण थे . अंग्र...

आर्य समाज

आर्य समाज • आर्य समाज की स्थापना 1875 ई. में बम्बई (मुम्बई) में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने की थी। • दयानन्द सरस्वती का मूल नाम मूलशंकर था, इनका जन्म 1824 ई. में काठियावाड़ गुजरात में हुआ था। • आर्य समाज का प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने विचारों के प्रसार हेतु 1874 ई. में यह ग्रन्थ लिखा था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने "वेदों की ओर लौटो" तथा "भारत भारतीयों के . लिए है" नारे प्रचारित किए। आर्य समाज के सिद्धान्तों में ईश्वर को निराकार तथा सर्वव्यापी माना गया है। मूर्ति पूजा को स्वीकार नहीं किया गया तथा वेदों को ईश्वर का वचन माना गया है। आर्य समाज में ऊँच-नीच, छुआछूत, जाति-पाँति को वेद विरुद्ध तथा निषिद्ध घोषित किया गया है। रामकृष्ण मिशन रामकृष्ण मिशन की स्थापना 1897 ई. में स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु तथा महान् सन्त स्वामी रामकृष्ण परमहंस के नाम पर की थी। रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय वेल्लूर मठ कोलकाता में स्थापित किया गया। स्वामी विवेकानन्द का जन्म 1863 ई. में कोलकाता में हुआ था। इनका बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। • 1893 ई. में अमेरिका ...

स्वतन्त्रता आन्दोलन में योगदान

स्वतन्त्रता आन्दोलन में योगदान •बारदोली सत्याग्रह गुजरात के सूरत जिले में स्थित बारदोली 1922 ई. के बाद राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया था, जिसका प्रमुख कारण लगान वृद्धि थी। 1926-27 ई. में कपास के मूल्यों में गिरावट के बावजूद सरकार ने बारदोली में राजस्व 22% बढ़ा दिया। किसानों की ओर से आन्दोलन का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल के द्वारा किया गया। इस आन्दोलन के संचालन में मिली सफलता के कारण बारदोली की महिलाओं के द्वारा इन्हें 'सरदार' की उपाधि से विभूषित किया गया। देशी रियासतों का भारत संघ में विलय इन्होंने दूरदर्शिता, उदारता तथा कठोर निर्णय के कारण रियासतों के विलय में आई बाधा को दूर किया। सर्वप्रथम इन्होंने रक्षा, विदेशी मामलों और संचार के विषयों में देशी रियासतों को सम्मिलित किया फिर उनका संगठन करके अन्त में पूरी तरह से केन्द्र में विलय कर दिया, इनके प्रयासों से 15 अगस्त, 1947 तक जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर सभी रियासतें भारतीय संघ में सम्मिलित हो गईं। फरवरी, 1948 में रेफरेण्डम के द्वारा जूनागढ़ का विलय 20 जनवरी, 1949 को काठियावाड़ के संयुक्त राज्य में किया गया। हैदर...

वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पर भारतीयों की प्रतिक्रिया

वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पर भारतीयों की प्रतिक्रिया अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाने के लिए 1978 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित किया गया था। इस एक्ट की व्यापक निंदा की गई। इस एक्ट के अनुसार किसी खास भाषा के समाचार पत्रों को प्रतिबन्धित किया गया था। इस एक्ट में अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्रों को शामिल नहीं किया गया था। राष्ट्रवादियों ने इसे दमनकारी एक्ट बताया। उनका मानना था कि ब्रिटिश सरकार ऐसा कर राष्ट्रवादी गतिविधियों को रोकना चाहती थी, ताकि क्षेत्रीय समाचार पत्रों के माध्यम से राष्ट्रीयता की भावनाओं का विस्तार नहीं होने पाए। भारतीय नेताओं ने इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाना बताया इस अधिनियम की व्यापक निंदा की गई। इल्बर्ट बिल 1873 ई. की फौजदारी दण्ड संहिता के अन्तर्गत किसी भी भारतीय न्यायाधीश को यूरोपीय अपराधियों को मुकदमा सुनने का अधिकार नहीं था। यह प्रावधान उच्च पदों पर आसीन भारतीयों के लिए असहनीय था। इन कमियों को दूर करने के लिए लॉर्ड रिपन के द्वारा अपनी परिषद् के विधि सदस्य इल्बर्ट की सहायता के लिए एक बिल पारित करने का प्रयास किया गया। इस बिल के प्रमुख प्रावधान थे— जाति...

सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलन

सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलन उन्नीसवीं शताब्दी का धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण आधुनिक भारतीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है, इसने भारतीयों को आत्म-निरीक्षण करने के लिए विवश किया। इस समय हिन्दू धर्म एवं समाज निष्क्रिय एवं शक्तिहीन अवस्था में था। अतः हिन्दू समाज में सुधार की आवश्यकता थी। इसके लिए निम्नलिखित सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलन चलाए गए, जो इस प्रकार हैं •• ब्रह्म समाज ब्रह्म समाज की स्थापना राजा राममोहन राय के द्वारा की गई। इस समाज का प्रमुख उद्देश्य एकेश्वरवाद, आस्तिकता तथा आचार सम्बन्धी बातों पर • प्रार्थना समाज आधारित था। यह जाति व्यवस्था एवं बाल विवाह के विरोधी, जबकि पुरुष एवं स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलन • ब्रह्म समाज आर्य समाज थियोसॉफिकल सोसायटी रामकृष्ण मिशन मुस्लिम सुधार आन्दोलन प्रार्थना समाज आत्माराम पाण्डुरंग के द्वारा 1867 ई. में बम्बई में प्रार्थना समाज की स्थापना की गई, इनके द्वारा बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, बहु-विवाह एवं जाति-पाँति का विरोध किया गया तथा स्त्री शिक्षा एवं विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया गया। आर्य समा...

मुस्लिम सुधार आन्दोलन

मुस्लिम सुधार आन्दोलन मुस्लिम सुधार के आन्दोलन निम्नलिखित थे • सर सैयद अहमद खाँ एवं अलीगढ़ आन्दोलन अंग्रेजी शिक्षा एवं ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग के पक्ष में सबसे प्रभावशाली आन्दोलन का प्रारम्भ सैयद अहमद खाँ के द्वारा किया गया। इनका जन्म 1817 ई. में दिल्ली में हुआ था। इनके द्वारा तहजीब-उल-अखलाक (सभ्यता और नैतिकता) नामक फारसी पत्रिका निकाली गई। इन्होंने 1864 ई. में कलकत्ता में साइण्टिफिक सोसायटी की स्थापना की। 1869 ई. में सर सैयद अहमद खाँ इंग्लैण्ड गए, जिससे उन्हें स्वयं पश्चिमी संस्कृति के सम्पर्क में आने का अवसर मिला, इनके द्वारा मुस्लिमों में नवजागरण के निम्नलिखित प्रयास किए गए (i) इन्होंने मुस्लिम समाज के आधुनिकीकरण के लिए अंग्रेजी शिक्षा पर बल दिया। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए 1875 ई. में अलीगढ़ में मुस्लिम एंग्लो ओरियण्टल स्कूल की स्थापना की। यह 1878 ई. में कॉलेज बन गया और वर्ष 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया। (ii) इनके द्वारा मुस्लिम समाज में फैली कुरीतियों, रूढ़ियों और धार्मिक अन्धविश्वासों का खुलकर विरोध किया गया। (iii) इस्लाम को मानवतावादी रूप दे...

राष्ट्रवाद के उदय के कारण

भारतीयों का उच्च पदों से वंचित होना 1833 ई. के अधिनियम में वर्ग, जाति, धर्म आदि के भेदभाव के बिना सबको उच्च सेवाएँ देने का आश्वासन दिया गया था, लेकिन 1858 ई. के अधिनियम में जानबूझ कर इस नीति को लागू नहीं किया गया। भारतीयों को खास भारतीयों का उच्च पदों से वंचित उच्च सरकारी पदों से बाहर रखने के नियमित प्रयास किए जाने लगे थे, जैसे इण्डियन सिविल सर्विस परीक्षा में प्रवेश के लिए 21 वर्ष की आयु तथा परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी था। राष्ट्रवाद के उदय के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद धार्मिक व सामाजिक सुधारकों का योगदान अंग्रेजी शिक्षा समाचार पत्रों का योगदान होना प्रजातीय विभेद आर्थिक शोषण परिवहन तथा संचार साधनों का विकास भारतीय शिक्षा संस्कृति का प्रचार-प्रसार प्रजातीय विभेद प्रजातीय विभेद अथवा नस्लवाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद एवं औपनिवेशिक नीति का प्रमुख आधार . अन्य देशों में स्वाधीनता की प्राप्ति था। अंग्रेज स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझते थे तथा भारतीयों को हीन समझते थे। 1857 ई. के विद्रोह के उपरान्त प्रजाति की शिष्टता की यह भावना और भी प्रबल हो गई। अंग्रेजों का निवास स्थान भारतीयों के निवास स्थल से बिल्...

सविनय अवज्ञा आन्दोलन सविनय अवज्ञा का अर्थ है विनम्रतापूर्वक आज्ञा

सविनय अवज्ञा आन्दोलन सविनय अवज्ञा का अर्थ है विनम्रतापूर्वक आज्ञा  करना। सविनय अवज्ञा गाँधीजी के आन्दोलनों की विशेषता रही है। इसके अन्तर्गत विनम्रता तथा अहिंसक होकर सरकारी कानूनों का उल्लंघन किया जाता है। 1930 ई. में महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ किया था। इसके लिए उन्होंने नमक सत्याग्रह की शुरूआत की। महात्मा गाँधी के द्वारा 12 मार्च, 1930 को ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह शुरू करने का निश्चय किया गया। उन्होंने 12 मार्च को साबरमती आश्रम से अपने 78 समर्थकों के साथ दाण्डी के लिए पदयात्रा प्रारम्भ की। 6 अप्रैल को गाँधीजी ने नमक बनाकर कानून तोड़ा। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के कारण सविनय अवज्ञा प्रारम्भ करने के पीछे निम्नलिखित कारण थे, जो इस प्रकार हैं ब्रिटिश सरकार ने नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत कर भारतीयों के लिए संघर्ष के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं छोड़ा। देश की आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई थी। विश्वव्यापी आर्थिक महामन्दी से भारत भी अछूता नहीं रहा। इस कारण किसानों व मजदूरों की दशा अत्यधिक शोचनीय हो गई थी। ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध 1928 ई. में गुजरात के बारदोली में सरदार पटेल क...

स्वतन्त्रता संग्राम में सुभाषचन्द्र बोस केयोगदान की (2016)

 स्वतन्त्रता संग्राम में सुभाषचन्द्र बोस के योगदान की (2016) विवेचना कीजिए | उत्तर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक जिले में हुआ था। इनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। उनके पिता जानकीनाथ बोस एक प्रसिद्ध वकील थे। बोस की आरम्भिक शिक्षा मिशनरी स्कूल में हुई थी। 1913 ई. में मैट्रिक पास करने के पश्चात् वे आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैण्ड गए। इंग्लैण्ड में उन्होंने इण्डियन सिविल सेवा की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया, किन्तु राष्ट्र प्रेम की भावना एवं देश सेवा के जज्बे के कारण उन्होंने आईसीएस की सेवा से त्यागपत्र दे दिया। राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने हेतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। इन्होंने असहयोग आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। 1923-24 ई. में देशबन्धु चितरंजन दास के नेतृत्व में गठित कलकत्ता नगर निगम के अधिशासी अधिकारी बने। 1938 ई. में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए। 1939 ई. में इन्होंने पुन: इस पद के लिए खड़े होने का निर्णय लिया, किन्तु गाँधीजी, आचार्य कृपलानी, सरदार पटेल आदि ने उनका विरोध किया तथा ...

काकोरी काण्ड

काकोरी काण्ड  1924 ई. में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना हुई। इसके मुख्य कार्यकर्ता सचीन्द्रनाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल, योगेशचन्द्र चटर्जी, अशफाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह इत्यादि थे। अपनी गतिविधियों को संचालित करने के लिए क्रान्तिकारियों को धन की आवश्यकता थी। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्रान्तिकारियों ने 9 अगस्त, 1925 को सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली ट्रेन में रखे सरकारी खजाने को लखनऊ के निकट काकोरी नामक स्थान पर लूट लिया। इतिहास में इस घटना को काकोरी ट्रेन लूट काण्ड के नाम से जाना जाता है। काकोरी केस के आरोप में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह एवं राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी की सजा दी गयी जबकि सचीन्द्रनाथ सान्याल को उम्र कैद की सजा मिली। (ख) सेन्ट्रल एसेम्बली (केन्द्रीय विधान सभा) पर बम प्रहार पुलिस के बढ़ते दमन चक्र से लोगों में यह भावना बैठने लगी कि क्रान्तिकारी अपनी गतिविधियों को अन्जाम देकर भाग निकलते हैं तथा सामान्य जनता को पुलिस के दमन का शिकार होना पड़ता है। इस भावना से ग्रसित जनता में क्रान्तिकारियों के प्रति विश्वास जगाने के लिए हिन्दुस्तान सोशल...

भारत विभाजन की परिस्थितिया

भारत विभाजन की परिस्थितिया भारत विभाजन की परिस्थितियों का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है फूट डालो राज करो की नीति ब्रिटिश शासकों ने भारत में फूट डालो राज करो की नीति का अनुसरण किया। इस नीति का अनुसरण करते हुए उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के बीच मतभेद पैदा कर दिया। उनकी कुछ नीतियाँ मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण थीं, तो कुछ नीतियाँ हिन्दुओं के प्रति । भारत विभाजन की परिस्थि का वर्णन फूट डालो राज करो की नीति मुस्लिम लीग को प्रोत्साहन जिन्ना की माँग साम्प्रदायिक हिंसा हिन्दू महासभा का प्रभाव • माउण्टबेटन का प्रभाव मुस्लिम लीग को प्रोत्साहन कांग्रेस ने अपनी स्थापना के बाद से ही अंग्रेजों की नीतियों का विरोध करना कर दिया था, इसलिए अंग्रेज कांग्रेस को पसन्द नहीं करते थे। कांग्रेस के वि मुस्लिम लीग को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने 1909 ई. में मुसलमानों साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया। इस तरह से वह मुस्लिम लीग भड़काकर कांग्रेस पर नियन्त्रण करना चाहते थे। जिन्ना की माँग मुस्लिम लीग के शीर्ष नेता मोहम्मद अली जिन्ना अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते दो रा क...

यदि आपातकाल सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं होते

यदि आपातकाल सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं होते संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने संविधान में आपातकालीन उपबन्धों की आलोचना भी की है। उनका मानना था कि इससे संविधान का संघीय प्रभाव नष्ट होगा तथा केन्द्र सर्वशक्तिमान बन जाएगा। राज्यों की शक्तियाँ पूरी तरह से केन्द्रीय प्रबन्धन के हाथों में आ जाएँगी तथा राष्ट्रपति तानाशाह बन जाएगा। वहीं कुछ विद्वानों ने इसका बचाव भी किया है। अम्बेडकर ने कहा है कि “मैं पूर्ण रूप से इनकार नहीं करता कि इन अनुच्छेदों का दुरुपयोग नहीं होगा, लेकिन यह भारतीय लोकतन्त्र के लिए स्वास्थ्यवर्धक भी समय-समय पर सिद्ध होंगे। भारतीय संविधान द्वारा अगर राष्ट्रपति को संकटकालीन परिस्थितियों (आपातकाल) से सम्बन्धित अधिकार नहीं दिए होते तो देश में निम्नलिखित स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती थीं 1. अनुच्छेद 352 में बाहरी आक्रमण, युद्ध एवं सैनिक विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय आपात लगाने का प्रावधान है। अगर इन स्थितियों में यह अधिकार नहीं दिया गया होता तो देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है तथा भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो सकता है। 2. अनुच्छेद 356 में यह प्रावधान दिया गया ह...

भारतीय संसद के कार्य

भारतीय संसद के कार्य भारतीय संसद का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य देश के लिए कानून बनाना है। संसद को संघ सूची, समवर्ती सूची तथा विशेष परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। यद्यपि लोकसभा संसद का निम्न सदन है, किन्तु वह राज्यसभा से अधिक शक्तिशाली है। राज्यसभा बुद्धिजीवियों की सभा कही जाती है। यह एक स्थायी सदन है जिसका विघटन नहीं होता है, बल्कि प्रत्येक दो वर्ष बाद 1/3 सदस्य अवकाश ग्रहण कर लेते हैं। संसद के कार्यों को निम्नलिखित तथ्यों द्वारा समझा जा सकता है। . व्यवस्थापिका सम्बन्धी कार्य प्रत्येक विधेयक को विधि बनाने के पूर्व संसद की स्वीकृति अनिवार्य है। वित्त विधेयक (धन विधेयक) को छोड़कर अन्य कोई भी साधारण विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। वित्त विधेयक (धन विधेयक) सर्वप्रथम लोकसभा में ही पेश किया जाता है तत्पश्चात् राज्यसभा में यदि राज्यसभा 14 दिनों तक इस विधेयक पर अपनी मंजूरी नहीं देती है, तो इसे दोनों सदनों से पारित मान लिया जाता है। ऐसे विधेयकों पर राज्यसभा की कोई भी सिफारिश स्वीकार नहीं की जाती है। अनुच्छेद 108 के अन्तर्गत सं...

राज्य शासन में राज्यपाल का क्या महत्त्व है?

राज्य शासन में राज्यपाल का क्या महत्त्व है?  राज्यपाल उत्तर संविधान के अनुच्छेद 153 में राज्यों के राज्यपाल के बारे में प्रावधान है। राज्यपाल उस राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है। राज्य की कार्यपालिका की समस्त शक्तियाँ राज्यपाल में निहित होती हैं, राज्य प्रशासन के समस्त कार्य राज्यपाल के नाम से किए जाते हैं, परन्तु राज्यपाल विवेकाधीन शक्तियों को छोड़कर अपना समस्त कार्य राज्यमन्त्रिपरिषद् की सलाह पर करता है। राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् द्वारा किसी विषय से सम्बन्धित किसी विषय को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित कर सकता है। राज्यपाल वैसे तो मन्त्रिपरिषद् की सलाह पर कार्य करता है, परन्तु निम्नलिखित परिस्थितियों में राज्यपाल स्वविवेक का प्रयोग कर सकता है। 1. विधानसभा में किसी दल को बहुमत प्राप्त न हो, तो राज्यपाल उस दशा में मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कर सकता है। 2. मुख्यमन्त्री द्वारा विधानसभा के विघटन के परामर्श के सम्बन्ध में निर्णय कर सकता है। 3. राष्ट्रपति को राज्य की संवैधानिक स्थिति की जानकारी दे सकता है। राज्यपाल के बारे में डॉ. पी के सेन ने कहा है कि “राज्यपाल केवल नाममात्र का अध्यक्ष ...

राज्यपाल की शक्तियाँ एवं अधिकार

राज्यपाल की शक्तियाँ एवं अधिकार संविधान में प्रदत्त राज्यपाल के शक्तियों व अधिकारों को निम्न भागों में विभाजित किया जाता है। विधायी शक्ति राज्यपाल पास विधानमण्डल के अधिवेशन को बुलाने, स्थगित करने तथा अवधि से पूर्व विधानसभा को भंग करने का अधिकार है। विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल के हस्ताक्षर के बाद ही कानून बन पाता है। राज्यपाल शक्तियाँ/ अधिकार विधायी शक्ति कार्यपालिका की शक्ति वित्तीय अधिकार न्यायिक अधिकार • अन्य अधिकार राज्यपाल कुछ विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकता है, जब विधानमण्डल का अधिवेशन न चल रहा हो, तो राज्यपाल अध्यादेश जारी कर सकता है, जो विधानमण्डल की बैठक आरम्भ होने के 6 सप्ताह तक ही लागू रह सकता है। राज्यपाल सम्बन्धित राज्य विधानपरिषद् के 1/6 सदस्यों को मनोनीत करता है। वह विधानसभा में भी एक आंग्ल भारतीय समुदाय के सदस् को मनोनीत कर सकता है। राज्यपाल के पास विधानमण्डल के एक सदन या दोनों सदनों को संयुक्त रूप से सम्बोधित करने का अधिकार है। कार्यपालिका की शक्ति राज्य कार्यपालिका का प्रधान राज्यपाल ही होता है। राज्य के शासन सम्बन्धित कार्य राज्यपाल क...

मुख्यमन्त्री के कार्य तथा अधिकार

मुख्यमन्त्री के कार्य तथा अधिकार  1. मन्त्रिपरिषद् का गठन राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है तथा अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति मुख्यमन्त्री के परामर्श से राज्यपाल द्वारा की जाती है। 2. विभागों का बँटवारा मुख्यमन्त्री की सलाह पर राज्यपाल मन्त्रियों के बीच विभागों का वितरण करता है। मन्त्रियों की संख्या का निर्धारण मुख्यमन्त्री ही करता है। 3. नीति निर्धारण मुख्यमन्त्री राज्य की शासन नीति एवं अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों पर सम्बन्धित नीति का निर्धारण करता है। मुख्यमन्त्री के कार्य अधिकार मन्त्रिपरिषद् का गठन विभागों का बँटवारा नीति निर्धारण नियुक्ति का अधिकार विभागों का समन्वय शासन व्यवस्था का प्रधान मन्त्रिमण्डल का अध्यक्ष विधानसभा का नेता • राज्यपाल का सलाहकार 4. नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल द्वारा नियुक्त किए गए सभी पदाधिकारियों की नियुक्ति मुख्यमन्त्री के परामर्श से ही होती है; जैसे—महाधिवक्ता, कुलपति, राज्यलोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं उसके सदस्य आदि।। 5. विभागों का समन्वय राज्य के सभी विभाग एक इकाई के रूप में कार्य करें, मुख्यमन्त्री इसके लिए समन्वयक का कार्य करता है। 6. शासन व्यव...

उच्चतम (सर्वोच्च न्यायालय

उच्चतम (सर्वोच्च न्यायालय भारतीय संघीय शासन व्यवस्था में संविधान द्वारा एकीकृत न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है, जिसके शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) एवं उसके अधीन उच्च न्यायालय (High Court) एवं अन्य न्यायालय हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का उद्घाटन 28 जनवरी, 1950 को किया गया। राज्य (राष्ट्र) के शासन के तीन अंगों में एक महत्त्वपूर्ण अंग न्यायपालिका है। संविधान के अनुच्छेद 124 (1) के तहत वर्ष 1950 में नई दिल्ली में उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई। वर्ष 1950 में उच्चतम न्यायालय में 1 मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 7 अन्य न्यायाधीश थे। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय संशोधन अधिनियम 2008 के द्वारा फरवरी, 2009 में न्यायाधीशों की संख्या 26 से बढ़ाकर 31 कर दी है (1 मुख्य न्यायाधीश तथा 30 अन्य न्यायाधीश)। वर्तमान में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश टी एस ठाकुर हैं। उच्चतम न्यायालय का संगठन न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति अनुच्छेद 124 के अनुसार, भारत राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। परम्परा के अनुसार वरिष्ठ न्यायाधीश को ही मुख्य न्यायाधीश बनाया ...

न्यायाधीशों द्वारा शपथ ग्रहण

न्यायाधीशों द्वारा शपथ ग्रहण पद ग्रहण करने से पूर्व न्यायाधीश को राष्ट्रपति के समक्ष संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा एवं भक्ति की शपथ लेनी होती है। कार्यकाल और वेतन भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की अवकाश ग्रहण करने की अधिकतम आयु 65 वर्ष है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को संसद द्वारा महाभियोग लगाकर पद से हटाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का मासिक वेतन ₹1 लाख तथा अन्य न्यायाधीशों का वेतन ₹90,000 होता है। इसके अतिरिक्त इन्हें सवेतन छः छुट्टियाँ, निःशुल्क आवास, चिकित्सा आदि की सुविधाएँ तथा सेवानिवृत्त होने पर पेंशन इत्यादि सुविधाएँ भी प्राप्त हैं। • महाभियोग की प्रक्रिया महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा के कम-से-कम 100 या राज्यसभा के कम-से-कम 50 सदस्यों द्वारा राष्ट्रपति को सम्बोधित करते हुए लोकसभाध्यक्ष या राज्यसभा सभापति को दिया जाता है। इस प्रस्ताव का अनुमोदन तीन व्यक्तियों (दो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश तथा एक प्रख्यात विधिवेत्ता) की समिति करती है। सेवानिवृत्त होने पर वकालत पर प्रतिबन्ध सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अवकाश-प्राप्ति के पश्चात् किसी भी न्याय...

सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ एवं कार्यक्षेत्र सर्वोच्च

सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ एवं कार्यक्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। • प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार संविधान के द्वारा कुछ विषय ऐसे निर्धारित किए गए हैं, जिन पर सीधे सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जाती है। (i) मूल अधिकारों के हनन के सम्बन्ध में नागरिकों द्वारा सीधे सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। (ii) भारत सरकार एवं राज्य सरकार या सरकारों के बीच के विवाद। (iii) राज्य सरकार एवं राज्य सरकार के बीच के विवाद। अपीलीय क्षेत्राधिकार इसके अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय निम्न तरह की अपीलें सुनता है (i) दीवानी अपील उच्चतम न्यायालय में सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ एवं कार्यक्षेत्र प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार उन सभी दीवानी मामलों की अपील की जा सकती है, जिनके सम्बन्ध की अपील की जा सकती है, जिनके सम्बन्ध में उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दें कि इनमें कोई महत्त्वपूर्ण विधि का प्रश्न निहित है एवं जिसका निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा होना चाहिए। अपीलीय क्षेत्राधिकार अभिलेख न्यायालय सलाहकारी क्षेत्राधिकार न्यायिक समीक्षा का अधिकार अन्य शक्तियाँ (ii) संवैधानिक अपील संविधान के...

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति

 उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश एवं सम्बन्धित राज्यों के राज्यपाल तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय सम्बन्धित राज्य के मुख्य न्यायाधीश से भी परामर्श करता है। अनिवार्य अर्हताएँ भारत के संविधान में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए कुछ अनिवार्य अर्हताएँ निर्धारित की गई हैं, जो निम्नलिखित हैं • वह भारत का नागरिक हो । • वह भारत के किसी न्यायिक पद पर कम-से-कम 10 वर्ष तक रहा हो या वह भारत के किसी न्यायालय अथवा न्यायालयों में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो। • वह 62 वर्ष से कम आयु का हो। पदावधि / कार्यकाल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु पूर्ण होने तक अपना पद धारण कर सकते हैं अथवा इससे पूर्व न्यायाधीश राष्ट्रपति को सम्बोधित करके त्याग-पत्र दे सकते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें सिद्ध कदाचार या असमर्थता के आधार पर संसद के दोनों सदनों के बहुमत (कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा) से (महाभियोग प्रस्ताव पास करके ...

न्यायिक सक्रियता

न्यायिक सक्रियता न्यायपालिका द्वारा विधायिका एवं कार्यपालिका द्वारा बनाए गए जनहित सम्बन्धित मामलों में हस्तक्षेप, न्यायिक सक्रियता कहलाती है। भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन जनहित याचिकाएँ हैं। भारत में कानून की सामान्य प्रक्रिया के अनुसार कोई व्यक्ति तब ही न्यायालय जा सकता है, जब उसके स्वयं का कोई व्यक्तिगत नुकसान हुआ हो, लेकिन वर्ष 1979 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अवधारणा में बदलाव करते हुए यह निर्णय लिया कि पीड़ित लोगों के अतिरिक्त दूसरे व्यक्ति भी उनकी ओर से जनहित याचिका दाखिल कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ मामलों में न्यायालय समाचार पत्रों में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर स्वयं ही कार्यवाही प्रारम्भ कर देता है; जैसे-आगरा प्रोटेक्शन होम केस। इसे स्वतः संज्ञान मामला भी कहा जाता है। जनहित याचिकाओं की शुरूआत सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिकाओं की शुरूआत हुई। भारत में वर्ष 1981 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी एन भगवती एवं न्यायाधीश वी आर कृष्ण अय्यर ने जनहित याचिकाओं की शुरूआत करके भारत में न्यायिक सक्रियता को प्रारम्भ किया। वर्ष 19...

विदेश नीति से तात्पर्य उस नीति से होता है, जिसके आधार पर किसी देश

 विदेश नीति से तात्पर्य उस नीति से होता है, जिसके आधार पर किसी देश के अन्य देशों के साथ राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक सम्बन्ध विकसित होते हैं। जोसेफ फ्रेंकेल के अनुसार, “राष्ट्रहित विदेश नीति का आधारभूत सिद्धान्त है।" नेहरू के अनुसार, “किसी भी देश की विदेश नीति की आधारशिला उसके राष्ट्रीय हित की सुरक्षा है। " भारतीय विदेश नीति की विशेषताएँ सिद्धान्त भारत की विदेश नीति एक सम्प्रभु राष्ट्र की स्वतन्त्र विदेश नीति है, जो स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व निर्मित की गई तथा यह आज भी भारत के विदेशी सम्बन्धों की आधारशिला है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं गुट-निरपेक्षता की नीति द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त शीत युद्ध का दौर चला, जिसमें विश्व दो महाशक्तियों के नेतृत्व में निर्मित सैन्य गुटों में बँट गया। पहला गुट, संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में था तथा दूसरा गुट, पूर्व सोवियत संघ के नेतृत्व में था। इस स्थिति में भारत ने स्वतन्त्रता उपरान्त किसी भी गुट में शामिल न होकर गुट निरपेक्ष रहने का निर्णय लिया। यह नीति भारतीय विदेश नीति मे...

भारत एवं पड़ोसी राष्ट्र सम्बन्ध

भारत एवं पड़ोसी राष्ट्र सम्बन्ध . पूर्वी सीमा पर स्थित देश बांग्लादेश तथा म्यांमार । पश्चिमी सीमा पर स्थित देश पाकिस्तान व अफगानिस्तान (उत्तर-पश्चिमी सीमा) उत्तरी सीमा पर स्थित देश नेपाल, चीन, भूटान (पूर्वोत्तर) दक्षिणी सीमा पर स्थित देश श्रीलंका (समुद्री सीमा ) नेपाल भारत व नेपाल के सम्बन्ध प्रारम्भ से ही मैत्रीपूर्ण हैं। भारत व नेपाल के नागरिकों को परस्पर अबाध पारगमन की सुविधा प्राप्त है। चीन इसके साथ आरम्भ में भारत ने सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए पंचशील समझौता किया, किन्तु 1962 ई. में चीन के भारत पर आक्रमण से दोनों देशों के सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गए। वर्ष 1968 ई. के पश्चात् दोनों देशों ने सम्बन्ध सामान्य बनाने की दिशा में प्रयास आरम्भ किए। बांग्लादेश बांग्लादेश 1971 ई. से पूर्व पूर्वी पाकिस्तान कहलाता था। 1971 ई. भारत के सहयोग से इसे स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। भारत व बांग्लादेश के मध्य विवाद के मुद्दे, घुसपैठ, सीमा निर्धारण तथा नदी जल से सम्बन्धित हैं। श्रीलंका इस देश से भारत के सम्बन्ध मधुर रहे हैं, किन्तु तमिल समस्या दोनों देशों के बीच मतभेद का मुख्य कारण है। यद्यपि 1988 ई. के कोलम्...

• म्यांमार इस देश के साथ भी भारत के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण

• म्यांमार इस देश के साथ भी भारत के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण हैं। दोनों देशों की स्थल सीमा का निर्धारण हो चुका है तथा दोनों देश गुट निरपेक्षता की नीति के समर्थक हैं। धार्मिक, सांस्कृतिक रूप से भी भारत एवं म्यांमार के सम्बन्ध मधुर रहे हैं। दोनों देशों के बीच 1600 किमी की निर्विवाद सीमा है। भारत के लगभग 25 लाख लोग म्यांमार में निवास करते हैं, हालांकि कुछ समय तक सैन्य शासन के दौरान भारत के रिश्ते म्यांमार की सरकार से सामान्य नहीं रह पाए, किन्तु अक्टूबर, 2011 में म्यांमार के राष्ट्रपति की भारत यात्रा के पश्चात् सम्बन्धों की नई भूमिका बनी है। . भूटान यह भारत की पूर्वोत्तर सीमा पर स्थित देश है, जिसके भारत के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे हैं। भारत, भूटान की सैन्य तथा संचार सेवाओं की जिम्मेदारी निर्वाह करता है। भारत के प्रयासों से ही भूटान को संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त हुई थी। भारत प्रतिवर्ष अपने बजटीय आवण्टन के तौर पर एक बड़ी धनराशि भूटान को देता है, साथ ही दोनों देशों के बीच अबाध पारगमन की सुविधा भी उपलब्ध है। जून, 2014 में भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमन्त्री ने अपनी प्रथम विदेश यात्रा म...

महासभा के कार्य

महासभा के कार्य • नए सदस्यों को सदस्यता प्रदान करना। • सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासचिव की नियुक्ति करना। सुरक्षा परिषद् के 10 अस्थायी सदस्यों, आर्थिक व सामाजिक परिषद् 54 सदस्यों, न्यास परिषद के 6 सदस्यों तथा अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय न्यायाधीशों का निर्वाचन करना। • अपने सभापति का निर्वाचन करना। सुरक्षा परिषद् के के यह संयुक्त राष्ट्र संघ का सबसे महत्वपूर्ण अंग है, इसमें कुल 15 सदस्य होते हैं। स्थायी सदस्य संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन तथा फ्रांस इसके स्थायी सदस्य देश हैं, इन्हें परिषद् में वीटो पावर या निषेधाधिकार प्राप्त है। इस अधिकार का प्रयोग करके कोई भी स्थायी सदस्य परिषद् के निर्णय को रद्द कर सकता है। अस्थायी सदस्य अस्थायी सदस्यों का चुनाव दो वर्षों के लिए महासभा दो-तिहाई बहुमत द्वारा करती है। भारत भी 6 बार इसका अस्थायी सदस्य रहा है। सुरक्षा परिषद् के कार्य सुरक्षा परिषद् के कार्य निम्नलिखित हैं • यह विश्व शान्ति और सुरक्षा व्यवस्था को बनाए रखती है। • यह अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों को रोकने के लिए सैन्य कार्यवाही कर सकती है। परिषद् निःशस्त्रीकरण के लिए भी प्रस्ताव पारि...

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के कार्य . विश्वभर के श्रमिकों के हित के लिए कल्याणकारी योजनाएँ बनाना।

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के कार्य . विश्वभर के श्रमिकों के हित के लिए कल्याणकारी योजनाएँ बनाना। • श्रमिकों के शिक्षण तथा प्रशिक्षण का प्रबन्ध करना। श्रमिकों के समुचित वेतन, आवास, स्वास्थ्य तथा जीवन स्तर को सुधारने के उपाय करना। • बाल श्रम की रोकथाम करना। औद्योगिक विवादों का निर्णय करना तथा श्रमिकों की समस्याओं का समाधान करना। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) इसकी स्थापना 7 अप्रैल, 1948 को जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड) में की गई। इसका मुख्यालय भी यहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्य सम्पूर्ण विश्व में मानव स्वास्थ्य के विकास के लिए योजनाएँ बनाना। . • संक्रामक तथा घातक बीमारियों की रोकथाम करना। • स्वास्थ्य के क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसन्धान करना तथा दैवीय आपदा से होने वाली हानि • अल्पविकसित देशों में स्वास्थ्य जागरूकता का प्रसार करना। को रोकना। संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) • 4 नवम्बर, 1946 को लन्दन में यूनेस्को की स्थापना की गई। • इसका मुख्यालय फ्रांस की राजधानी पेरिस में है। यूनेस्को के कार्य यूनेस्को के कार्य निम्नलिखित हैं संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना। ...

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना द्वितीय विश्वयुद्ध के विनाशकारी परिणामों को देखकर विश्व के राजनीतिज्ञों ने मानव जाति को नष्ट होने से बचाने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना की आवश्यकता समझी। इसी उद्देश्य से 24 अक्टूबर, 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई, इसलिए इस तिथि को प्रत्येक वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने घोषणा पत्र को अन्तिम रूप देने के लिए अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और फ्रांस का एक सम्मेलन 15 अप्रैल से 26 जून, 1945 को सेन फ्रांसिस्को (यूएसए) में सम्पन्न हुआ। 26 जून, 1945 को 50 देशों के प्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे। पोलैण्ड का प्रतिनिधि उपस्थित न होने के कारण उसने बाद में हस्ताक्षर किए। अत: संयुक्त राष्ट्र संघ के आरम्भिक हस्ताक्षरकर्ता 51 देश थे। भारत इसके संस्थापक सदस्यों में से एक है। वर्तमान में इसके 193 सदस्य देश हैं। 10 फरवरी, 1946 को लन्दन के वेस्ट मिन्स्टर हॉल में इसका प्रथम अधिवेशन सम्पन्न हुआ जो 15 फरवरी, 1946 तक चला। बाद में इसका स्थायी सचिवालय न्यूयॉर्क में स्थापि...

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO)

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) इसकी स्थापना प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् वर्ष 1919 में हुई थी। इस समय यह में राष्ट्र संघ का अभिकरण था, बाद में राष्ट्र संघ के पतन के पश्चात् इसे संयुक्त राष्ट्र संघ का अभिकरण बना लिया गया। इसका मुख्यालय जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड) में है। इसके कुल सदस्यों की संख्या 150 है। प्रत्येक राष्ट्र के 4 सदस्य इसकी बैठक में भाग लेते हैं। इसका प्रशासनिक विभाग श्रमिक संघों के कार्यों पर नियन्त्रण रखता है। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के कार्य विश्वभर में श्रमिकों के लिए कल्याणकारी योजनाओं का निर्माण करना । श्रमिकों के शिक्षण और प्रशिक्षण का प्रबन्ध करना। श्रमिकों के समुचित वेतन, आवास, स्वास्थ्य तथा जीवन स्तर सुधारने का प्रयास करना। • बाल श्रम की रोकथाम करना। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) इसकी स्थापना 7 अप्रैल, 1948 को जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड) में की गई। इसके तीन अंग हैं- साधारण सभा, प्रशासनिक बोर्ड, सचिवालय प्रशासनिक बोर्ड में 18 सदस्य हैं। अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप, दक्षिणी-पूर्वी एशिया तथा अन्य देशों में इसकी क्षेत्रीय शाखाएँ हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्य . सम्पूर्ण विश...