भूमि उपयोग का प्रारूप
भौगोलिक क्षेत्रफल 32 87,263 वर्ग किमी होता है। भूमि उपयोग का प्रारूप निम्नलिखित है 0226 भूमिजिस भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया जाता उसे
* १ कहा जाता है। भारत में कुल भूमि के 47% भाग पर कृषि १24 श
भूमि जिस भूमि पर वनो का विस्तार है, उसे वन भूमि की संज्ञा दी जाती है।
भूमि का विस्तार करना कि हजेल के लिए आवश्यक है। कुल भूमि के
2128% भाग पर वन आच्छादित हैं, जबकि इसका राष्ट्रीय प्रतिशत 33 होना हहिएं। 1
भूमि जिस भूमि का प्रयोग हम पशुओ के चराने के लिए करते है, उसे
हु इरागाह भूमि कहा जाता है। देश के 4% भू भाग पर चरागाह उपलब्ध है। आरत की पशुधन समष्टि के अनुपात में कम है। है है। यह
दि जिस भूमि पर फसल न उगाई जा सके या जहाँ फसल उगाना कार कहलाती है। देश की 24% भूमि बंजर है। है उसाना कठिन + पर्ती भूमि जिस भूमि पर लगातार फसल न हो सके अर्थात् प्रतिवर्ष खेती न की था सके, परती भूमि कहलाती है। देश का 7% भूज्षेत्र परती भूमि है। एमि क्षण के कारण 1. अनियन्त्रित चराई 2. वनोन्मूलन भातत में भूमि क्षरण में सुधार लाने के लिए चलाए गए प्रमुख कार्यक्रम 1 इंजर भूमि विकास कार्यक्रम 2. वृक्षारोपण कार्यक्रम & रेगिस्तानी भूमि विकास कार्यक्रम 4. खारी भूमि विकास कार्यक्रम प्राकृतिक संसाधन » मानव जीवन के लिए आवश्यक संसाधन, जो प्रकृति से नि शुल्क प्राप्त हुए है, वे प्रकृतिक संसाधन कहलाते है। न ग् संसाधनों मे भूमि, मृदा, जल, वायु, वन्यजीव आदि को शामिल किया जाता है। मृद्ा संसाधन * मृदा भूमि का प्रमुख तत्त्व है। यह भू-पृष्ठ पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की ऊपरी परत है, जो चट्टानों व वनस्पति के योग से बनती है। मृदा की प्रकृति तथा बनावट पर स्थान विशेष की जलवायु, भौतिक दशा तथा वनस्पति व ख़निजों का प्रभाव पड़ता है। मृद्रा के प्रकार तथा उपयोग परातलीय विशेषताओं, निर्माण सामग्री तथा इनकी उपयोगिता के आधार पर म्रारतीय मिट््टियो को निम्नलिखित भागों मे बाँटा जा सकता है * जत्रोढ़ मिट्टी इसे कौंप, दोमट या कछारी मिट्टी भी कहा जाता है, जिसका विस्तार पंजाब, हरियाणा, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों मे है। इसका निर्माण पर्वतीय नदियों द्वारा बहाकर लाई गई मिट्टी से होता है। जलोढ़ मृदा की उर्वरा शक्ति सामान्य होती है, जिस कारण यह गन्ना, चना, गेहूँ की फसल के लिए उपयुक्त होती है, इसमे जीवांशो की प्रचुर मात्रा पाई जाती है। उत्तर भारत का विशाल मैदान इसी से निर्मित है। इसके अतिरिक्त, यह पूर्वी तटीय मैदान के कुछ भागों मे भी पाई जाती है। बांगर (पुरानी जलोब) व खादर (नवीन जलोढ) इसके दो भाग हैं 1, खादर मैदानो में नदियो की बाढ़ द्वारा जिस नवीन कौंप मिट्टी का जमाव किया जाता है, वह खादर कहलाती है। न 2 बांगर जिन क्षेत्रो मे बाढ़ का पानी नहीं आता, वहाँ पुरानी मृदा बनी रहती है, उसे बागर कहते है। ' कहती मिदूटी इसे रेगुर भी कहा जाता है, जिसका विस्तार दक्कन के पठार मैं, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि मे पाया जाता है। यह मिट्टी ज्वालामुखी क्रिया द्वारा सत्मर्जित लावा निर्मित शैलो के अपरदन से बनी है। यह लोहा, मैग्नीशियम,
जाते एल्युमीनियम व जीवांशों से युक्त होती है, इसमे पर्याप्त मात्रा मे खनिय जाता है। कपास के लिए उपयुक्त होने के कारण इसे काली कपास भूदा ने नमी धारण है। यह प्रायद्वीपीय पठार मे प्रमुख रूप से पाई जाती है। इस मिट्टी में न मिट्टी करने की क्षमता होती है। इस मिट्टी मे फॉस्फोरस की कमी होती है। हक इसमें दक््कन के पठार मे 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर विस्तृत फल ग्रीष्म ऋतु मना गहरी दरारे पड़ जाती है। इस मिट्टी मे कपास, ,, तिलहन, गे आया चावल, ज्वार, बाजरा, तम्बाकू, सोयाबीन आदि फसलो का उत्पादन पर्याप्त मा में होता है।
» लाल व पीली मिट्टी लोहे का अंश अधिक होने के कारण लाल होती है। इसका निर्माण ग्रेनाइट, नीस जैसी आग्नेय शैलो के अपरदन से हुआ है, इसमे फॉस्फोरस, पोटाश, चूना व जीवांशों की कमी पाई जाती है। यह कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, छोटानागपुर, पश्चिम बंगाल में पाई जाती है। ज्वार, बाजरा, दलहन व 'तिलहन इसमे प्रमुख रूप से उगाए जाते है।
* लैटेराइट मिट्टी यह मिट्टी गहरे पीले रग की होती है। इसका निर्माण उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रो मे तीव्र वर्षा के कारण हुआ है। यह केरल, कर्नाटक, राजमहल की पहाड़ियों में पाई जाती है, इसमे चावल, गन्ना, रागी, कहवा आदि की कृषि की जाती है।
« भरुस्थलीय मिट्टी मरुस्थलीय क्षेत्रों मे वर्षा कम होने के कारण यहाँ ऊसर, थूर, रॉकड़ तथा कल्लर जैसी मिट्टियाँ पाई जाती है। यह लवणीय व क्षारीय होती है, इसमे ज्वार, बाजरा, मूँगफली जैसी फसले उगाई जाती है।
« पर्वतीय मिट्टियाँ पर्वतीय मिट््टियाँ हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों मे पाई जाती है, इनमे जीवाश की मात्रा कम होती है। इनको निम्न चाय की मिट्टी, पथरीली मिट्टी, टर्शियरी मिट्टी आदि भागों मे बांटा गया है।
* लवण भृदाएँ ये मृदाएँ ऊसर होती है। इनमे सोडियम, पोटैशियम और मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है। पश्चिमी गुजरात, पूर्वी घाट, पूर्वी तट के डेल्टाओ में इनका प्रसार पाया जाता है, इनमे जिप्सम डालकर खेती की जाती है।
* पीटमय मिट्टी यह मिट्टी भारी वर्षा तथा उच्च आर्द्रता वाली भूमि मे पाई जाती है, इसमे 40 से 50% तक जीवाश पाया जाता है। यह बिहार, पश्चिम बंगाल, दक्षिणी उत्तराखण्ड मे पाई जाती है।
मृदा अपरदन
मिट्टी के उपजाऊ कणो को प्राकृतिक कारकों द्वारा हटाया जाना ही भू-क्षरण या भू-कटाव कहलाता है। बहता जल, पवन तथा हिमानी इसके प्रमुख कारण है, जो लाखो टन मिट्टी बहाकर समुद्र मे पहुँचा देते है, जिस कारण भूमि अनुर्वर लगती है। मृदा अपरदन के प्रकार मृदा अपरदन के निम्नलिखित दो प्रकार हैं 1. समतस या चादरी मृदा अपरदन जब पवन या जल द्वारा भूमि की ऊपरी कोमल सतह काटकर उड़ा दी जाती है अथवा बहा दी जाती है, तो उसे समतल अथवा चादरी मृदा अपरदन कहते है। 2. नालीदार मृदा अपरदन तीव्रगति से बहता जल जब भूमि में गहरी नालियाँ बना देता है, तो उसे गहन अथवा नालीदार मृदा अप्रदन कहते है।
मृदा अपरदन के कारण
* पवन द्वारा « अनियन्त्रित चराई
* प्राकृतिक वनस्पति का विनाश * मूसलाधार वर्षा
मृदा संरक्षण के उपाय/अपरदन रोकने के उपाय
# वृक्षारोपण * नदियों पर बाँधो का निर्माण
* खेतों की मेड़बन्दी * ढालो मे सीढ़ीदार खेतों का निर्माण
* पशुचारण पए नियन्त्रण * जल निकासी की उधित व्यवस्था * खेतों में हरी खाद्य वाली फसलें उगाना, जैसे--सनई, मूँग व ढैंचा * नाली व गड्ढों को समतल बनाना।
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